साखी अर्थ Class 10

Sakhi Explanation / Arth Class 10

हिंदी (स्पर्श) पाठ – 1

कवि परिचय (कबीर)

कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ था और उनकी आयु काल लगभग 120 वर्ष की थी। वह गुरु रामानंद के शिष्य थे। कबीर एक क्रांतदर्शी कवी थे। उनकी कविता में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है‌। उनकी कविता सहज मर्म को छू लेती है। कबीर शास्त्री ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वह मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है।

कबीर जी ने अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और 1518 में चिरनिद्रा में लीन हो गए।

पाठ प्रवेश 

‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही रूप है। सक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है— प्रत्यक्ष ज्ञान। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान को ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विशाल था। कबीर जगह–जगह भ्रमण कर निष्कपट और साफ ज्ञान प्राप्त करते थे। अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का उपयोग स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।

‘सखी’ वस्तुत: दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी होती है।

पाठ व्याख्या

इन साखियों के द्वारा कवि ने ईश्वर के बारे में बताया है व उनकी खूबियों भी बताई है। उन्होंने लोगों को यह भी समझाने की कोशिश की है कि मनुष्यों को अपने अंदर से अहंकार व ईर्ष्या मिटा कर दूसरों के साथ प्रेम भाव से रहना चाहिए। ईश्वर पर विश्वास रखकर उनकी खूबियों को अपनाना चाहिए ना कि उनकी पूजा पाठ में लगकर सिर्फ मंदिरों या तीर्थ यात्राओं में जा जाकर उनका आदर करना चाहिए। कबीर जी ने यह भी समझाया कि मनुष्य को सिर्फ संसारिक या भौतिक सुखों के पीछे नहीं भागना चाहिए बल्कि ईश्वर को पाने की इच्छा रख कर अच्छे कर्म करने चाहिए।

साखी 

ऐसी बाँणी बोलिए मन का आपा खोई।

अपना तन सीतल करै औरन कैं सुख होई।।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी मनुष्य को मीठी वाणी बोलने के लिए कह रहे हैं।

व्याख्या : इस साखी से कबीर जी यह कहना चाहते हैं कि हमें ऐसी मधुर भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिससे कि हमारे मन का घमंड और अहंकार का नाश हो जाए। इससे हमारे तन को भी शीतलता प्राप्त होगी व मधुर वाणी सुनकर दूसरों को भी आनंद और सुख मिलेगा।

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।

ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी ने मनुष्य की उस कस्तूरी हिरण के साथ तुलना की है जो खुशबू प्राप्ति के लिए इधर उधर भटकता रहता है। उसी तरह लोग भी ईश्वर प्राप्ति के लिए इधर उधर भटक रहे है।

व्याख्या : इस साखी में कबीर जी यह कह रहे हैं कि जिस तरह कस्तूरी हिरण खुशबू प्राप्त करने के लिए जंगल में इधर-उधर भटकता रहता है जबकि वह खुशबू उसकी ही नाभि में बसी हुई होती है, परंतु इस बात से वह अनजान होता है। उसी तरह ईश्वर इस संसार के हर मनुष्य के अंदर बसा हुआ है, पर मनुष्य ईश्वर को मंदिरों व तीर्थ यात्राओं में जाकर उसे ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं।

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाँहि।

सब अँधियारा मिटी गया दीपक देख्या माँहि॥

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी मन के अहंकार मिट जाने के बाद ईश्वर के वास के बारे में बताया है।

व्याख्या : इस साखी में कबीर जी कहते है कि जब तक एक मनुष्य के मन के अंदर ‘मैं’ अर्थात अहंकार का वास होगा तब तक उसे ‘हरि’ यानी ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी और जब उसके मन का अहंकार मिट जाएगा तब अपने आप उसे ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी। ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक अंधेरे कमरे में दीपक के जलने पर उसकी रोशनी से पूरे कमरे का अंधियारा मिट जाता है।  

सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी ने मनुष्य की तुलना की है जो संसार के भौतिक सुखों को बहुत मजे से भोग रहे हैं व दूसरी तरफ वह मनुष्य है जो ईश्वर की खोज में लगे हैं।

व्याख्या : इस साखी में कबीर जी कहते है कि इस संसार के सभी लोग बहुत सुखी हैं क्योंकि वह संसार के भौतिक सुखों को बड़े आराम से भोग रहे हैं, आराम से खाते हैं व सोते हैं और उन्होंने ईश्वर को भुला दिया है। उनके अनुसार वह मनुष्य बहुत दुखी है जो ईश्वर की प्राप्ति में लगा हुआ है। वह उनकी प्रार्थना करते हुए हरदम जागते रहता है।

बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।

राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी कहते है ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित बच नहीं सकता अगर वह बच भी जाता है तो वह पागल होकर जीता है।

व्याख्या : इस साखी में कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस तरह एक साॅंप के काटने के बाद मनुष्य के अंदर विश फैलने लगता है, तब ना तो उस पर कोई मंत्र और ना ही कोई झाड़-फूंक काम आती है। उसी तरह राम अर्थात ईश्वर को पाने की चाह रखने वाले लोग जीवित नहीं रह पाते, अगर वह जीवित बच भी जाते हैं तो इस संसार में उनकी स्थिति पागलों की तरह हो जाती है।

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी निंदा करने वाले व्यक्ति को अपने पास रखने की सलाह देते हैं ताकि आप अपनी खामीयाॅं दूर कर अपने स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन ला सके।

व्याख्या : इस साखी में कबीर जी कह रहे हैं कि हमें निंदक करने वाले व्यक्ति को हमेशा अपने पास ही रखना चाहिए और अगर हो सके तो अपने आंगन में ही उनके लिए घर बनवा देना चाहिए। ताकि हम उनके द्वारा बताई गई गलतियों को सुधार कर अपने स्वभाव को बिना साबुन या पानी के ही निर्मल कर सके। 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।

एकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी किताबी ज्ञान को महत्व न देते हुए ईश्वर के प्रेम को महत्व देते हैं।

व्याख्या : इस साखी से कबीर जी यह बताना चाहते हैं कि इस संसार में ऐसे कई मनुष्य थे जो मोटी मोटी किताबें पढ़ पढ़कर मर गए, परंतु कोई भी उन किताबों को पढ़कर पंडित नहीं बन सका। अगर उन्होंने एक अक्षर भी प्रेम का पढ़ लिया होता तो वह पंडित बन जाते।

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

प्रसंग : प्रस्तुत साखी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी इस संसार के मोह माया के सुख से दूर रह कर ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखकर ज्ञान की प्राप्ति के लिए कह रहे हैं।

व्याख्या : इस साखी में कबीर जी कहते है कि उन्होंने अपने खुद के हाथों से अपने घर को जला दिया अर्थात मोह-माया से दूर हो कर उन्होंने ज्ञान प्राप्त कर लिया है, और अब उनके हाथों में जलती हुई लकड़ी अर्थात ज्ञान रूपी मशाल है। अब वह उनके घर भी अपने ज्ञान रूपी मशाल से जला देंगे जो उनके साथ चलना चाहते है, अर्थात ज्ञान अर्जित करने हेतु उन्हें भी इस संसार के मोह माया से मुक्त होना पड़ेगा

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